Saturday, November 13, 2010

२६ साल आंसूं बहाए हैं हमने

और आज भी गुनेहगार घूम रहे है

चिल्लाएं भी तो कैसे, फेफ्रों में जान नहीं है

और गुनेहगार घूम रहे है

बच्चे मर गए, औलादों ने माँ बाप खो दिए

और गुनेहगार घूम रहे है

अब अगर हम बन्दूक उठेंगे तो फिर

माओवादी कहा जाएगा हमें

आंतकवादी कहा जाएगा हमें

uncivilised कहा जाएगा हमें

लेकिन फिर भी, तुम्हारे बदन की एक नस हमारे दर्द को नहीं समझेगी

तुम अमन चाहते हो, हम इज्ज़त चाहते हैं

शायद तुम्हारी अमन की दुनिया में हमारी जगह नहीं

इसलिए आज बन्दूक उठेंगे, तुम्हारी अमन की दुनिया टूटेगी

अगर हमें इज्ज़त नहीं मिली, तो एक बात जान लो...

इन हाटों ने अपनों का दफनाया है

ये तुम्हे मारने से पहले कापेंगी नहीं...
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दिअरी के पन्नो में


यादें मानो कागज़ी चादर ओढ़ के



स्याही के जिस्म में ढल कर सो रहे थे



आँखों से आंसूं रुके नहीं थे की



कलम उठा कर, कागज़ और दिल का रिश्ता जोड़ा था मैंने



लिखता गया, लिखता गया



दिल कहता गया, दिल सुनता गया



और फिर भी तुम्हारे हाथों में दिअरी नहीं राखी



खालीपन रख दिया है मैंने



शब्दों को नहीं छुआ



नहीं जगाया मैंने यादों को



सोने दो चादर ओढ़ कर इन्हें



ये उठेंगे तो फिर आंसूं रुकेंगे नहीं....