Saturday, November 13, 2010

दिअरी के पन्नो में


यादें मानो कागज़ी चादर ओढ़ के



स्याही के जिस्म में ढल कर सो रहे थे



आँखों से आंसूं रुके नहीं थे की



कलम उठा कर, कागज़ और दिल का रिश्ता जोड़ा था मैंने



लिखता गया, लिखता गया



दिल कहता गया, दिल सुनता गया



और फिर भी तुम्हारे हाथों में दिअरी नहीं राखी



खालीपन रख दिया है मैंने



शब्दों को नहीं छुआ



नहीं जगाया मैंने यादों को



सोने दो चादर ओढ़ कर इन्हें



ये उठेंगे तो फिर आंसूं रुकेंगे नहीं....

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