दिअरी के पन्नो में
यादें मानो कागज़ी चादर ओढ़ के
स्याही के जिस्म में ढल कर सो रहे थे
आँखों से आंसूं रुके नहीं थे की
कलम उठा कर, कागज़ और दिल का रिश्ता जोड़ा था मैंने
लिखता गया, लिखता गया
दिल कहता गया, दिल सुनता गया
और फिर भी तुम्हारे हाथों में दिअरी नहीं राखी
खालीपन रख दिया है मैंने
शब्दों को नहीं छुआ
नहीं जगाया मैंने यादों को
सोने दो चादर ओढ़ कर इन्हें
ये उठेंगे तो फिर आंसूं रुकेंगे नहीं....
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