Wednesday, February 20, 2013

सुबह की सर्द हवा गालों को छु रही थी, मगर 45 साल पुराने गालों पर ये हवा क्या असर करती? कपकपाती ठंडी हवा भी दाढ़ी और मूछों के जंगल में सेंध नहीं लगा पाई थी। पिछले 26 साल से अशरफ अली इसी रस्ते पर चलते हुए फज्र की नमाज़ पढने पास के जुमा मस्जिद जाते थे। इसे अल्लाह के बुलावे का असर कहें या आदत, लेकिन नमाज़ पढ़ने  जाते वक़्त अशरफ साहब न कुछ सोचने लायक होते थे, न बतियाने के मूड में। एक बार को बगल वाले रसूल मियां ने ये तक कह दिया था, "मियां नमाज़ के लिए जा रहे हो या किसी की मैयत्त में?" लेकिन अशरफ साहब को इन तानो पर हसी आती थी। "कम्बक्त अल्लाह के दर पे जाने से पहले भी इन गधों की बातें सुन्नी पड़ती है," ये सोच कर चुपचाप रस्ते पर चलते रहते थे। लेकिन आज एक ख़ास दिन था। आज उनके साथ उनका बेटा रशीद भी था। ऐसा नहीं था की रशीद अपने अब्बा के साथ पहले नमाज़ पढने नहीं गया था। लेकिन आज वो 18 साल का हो गया था। जवानी की देहलीज़ पर पहले पाँव अल्लाह के दर पे पड़ने चाहिए, ये कह कर अशरफ मियां रशीद को फज्र की नमाज़ में लेके आये थे। सुस्ताई आँखों से रशीद ने टोपी डाली और चल पड़ा मस्जिद की ओर।
रशीद को मुसलमान कहना मुश्किल था। अब्बा जब तक न कहते, रशीद मस्जिद की तरफ रुख भी नहीं करता था। अपने उम्र के लड़कों की तरह उसके मन में भी भगवान्, अल्लाह, ऐसे शब्द विश्वास कम और शक ज्यादा पैदा करती थी। एक और ज़रूरी बात थी जिसने रशीद के दिमाग में अल्लाह के खिलाफ शक बोया था। जिस कॉन्वेंट स्कूल में रशीद बारंवी की पढाई कर रहा हटा, उसके गेट पर इसा मसीह की एक मनमोहक मूर्ती थी। शेहेर में अधिकतर लोग हिन्दू थे और पूरे साल कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता था और इस दौरान भिन्न भिन्न भगवानों की मूर्तियाँ दिखलाई देती थी। रशीद ने एक ही तरह का भगवान् देखा था, और उसका एक रूप, ढांचा, कद था। ये बात अब्बा को कहने की हिम्मत नहीं थी। तीन साल पहले एक मौलवी साहब की उदरु की क्लास में इस सवाल ने रशीद के गाल पर एक ऐसी तमाच लायी थी की पूरे दिन कान में झाल मृदंग बज रहे थे। "बुतपरस्त है तू नालायक, जहन्नुम में भी जगह नसीब नहीं होती तुझ जैसों को," ये कहा था मौलवी साहब ने। वो बात रशीद को न तब समझ आई थी, न ही आज, जब नमाज़ पढ़ने से पहले वही मौलवी साहब मस्जिद के आँगन में दिखाई दिए। नमाज़ पढ़ी, सब से सलाम दुआ करी, और अब्बाजान को खुदा हाफ़िज़ कहते हुए रशीद चल पड़ा चाय की दूकान की तरफ। रास्ते में सौरव भी मिल गया।

Tuesday, February 19, 2013

Dil-e-nadaan

यूँ ही मोहब्बत करता रह
यूँ ही मोहब्बत बुनता रह
जो चोट खाए, तो स्याही बना उसे,
जो हँसी  आये, तो शायरी बना उसे
जो घबराए तू, तो बीते दिन याद कर,
जो मायूस तू, तो उन चेहरों को याद कर
तू धड़कता है, तो दिन गुज़रते हैं,
तू न हो, तो हम न जीते हैं न मरते हैं,
तूने ही मोहब्बत सिखाया, किसी ने तुझे ये नहीं बताया
तू ही मोहब्बत है, तुझसे ही मोहब्बत है,
 जब सुनसान सी  रातो  में तू घबराता है
तू खुद ही एक आवाज़ बन मुझे याद दिलाता है

यूँ ही मोहब्बत करता रह
यूँ ही मोहब्बत बुनता रह



Tuesday, February 5, 2013

लहरों की तरह बहते हुए बादलों को कभि देखना तुम| आज इन्ही बादलों के बीच बैठे बैठे तुम्हारी याद यकायक आई| पिछले कुछ दिनों से तुम मानो एक पुरानी याद बनके दिल के किसी कोने में सोए हुए थे| इन बादलों को देख कर ऐसा लगा मानो तुम मेरी तरफ धीरे धीरे बढ़ रहे थे| लेकिन बादलो की फ़ितरत कब बदली है? उनके बीच खड़े रहो, फिर भी वो हाथ ना आएँगे| हाँ| अब समझ आया तुम्हारा याद क्यूँ आई| क्या तुम भी ऐसी ही नही हो? पिछले कुछ दिनों से क्या तुम भी ऐसी नही हो गयी हो? अब तुम्हे इन्ही बादलों की तरह डोर से देखने की आदत हो गयी है| वो तो शुक्र है इन बादलों का, जिन्होने ये एहसास दिलाया की तुम्हारी यादें सो सकती हैं, मार नही सकती| कोहरे जैसे बादलों को चूमने की कोशिश की| नतीजा? एक बारिश की बूँद होठों पर आके रुक गयी| मीठी थी| उसे तुम्हारे नाम कर दिया|
आज उन बादलों की बाहों में बैठे बैठे तुम्हारी बाहों के दायरे याद आ रहें हैं| अब तुमसे दूर रहने की आदत सी हो गयी है| इन बादलों से कह दिया है की जब तुम इन्हे छूने की कोशिश करो, तो तुम्हारे होठों को भी एक बारिश की बूँद से चूम लें| वो बूँद बारिश की नही, इन आँखों की होगी। 

आज मैं तुमसे, एक ख्वाब वापस मांगता हूँ।
मुस्कुराहटों ने, तेरी आहटों ने,
इस दिल में एक घर बनाया था।
तेरी मोहब्बत के लिबास को पहन कर,
मेरे होठों ने एक सुर सजाया था।
जिस मय पर थिरके वो पग
हर बूँद उस शराब की मैं वापस मांगता हूँ
आज मैं तुमसे एक ख्वाब वापस मांगता हूँ





ये तेरा ही कमाल है शायद,
जो आज भी तेरी तस्वीर से बातें करता हूँ
बेमानी गलियों से गुज़रते हुए
अपने साए को तेरा समझ उसके पीछे चलता हूँ
जिन आँखों से स्याही दी, तूने इन लफ़्ज़ों को
उन आँखों से कुछ और अलफ़ाज़ मांगता हूँ



आज मैं तुमसे, एक ख्वाब वापस मांगता हूँ।।।।

Saturday, November 13, 2010

२६ साल आंसूं बहाए हैं हमने

और आज भी गुनेहगार घूम रहे है

चिल्लाएं भी तो कैसे, फेफ्रों में जान नहीं है

और गुनेहगार घूम रहे है

बच्चे मर गए, औलादों ने माँ बाप खो दिए

और गुनेहगार घूम रहे है

अब अगर हम बन्दूक उठेंगे तो फिर

माओवादी कहा जाएगा हमें

आंतकवादी कहा जाएगा हमें

uncivilised कहा जाएगा हमें

लेकिन फिर भी, तुम्हारे बदन की एक नस हमारे दर्द को नहीं समझेगी

तुम अमन चाहते हो, हम इज्ज़त चाहते हैं

शायद तुम्हारी अमन की दुनिया में हमारी जगह नहीं

इसलिए आज बन्दूक उठेंगे, तुम्हारी अमन की दुनिया टूटेगी

अगर हमें इज्ज़त नहीं मिली, तो एक बात जान लो...

इन हाटों ने अपनों का दफनाया है

ये तुम्हे मारने से पहले कापेंगी नहीं...
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दिअरी के पन्नो में


यादें मानो कागज़ी चादर ओढ़ के



स्याही के जिस्म में ढल कर सो रहे थे



आँखों से आंसूं रुके नहीं थे की



कलम उठा कर, कागज़ और दिल का रिश्ता जोड़ा था मैंने



लिखता गया, लिखता गया



दिल कहता गया, दिल सुनता गया



और फिर भी तुम्हारे हाथों में दिअरी नहीं राखी



खालीपन रख दिया है मैंने



शब्दों को नहीं छुआ



नहीं जगाया मैंने यादों को



सोने दो चादर ओढ़ कर इन्हें



ये उठेंगे तो फिर आंसूं रुकेंगे नहीं....